Monday 23 December 2013

ये सारा जहाँ सिमट कर
मेरी हथेली मेँ आ जाता
सुबह का सूरज
रात की चाँदनी
अनगिणत तारे
असीम आकाश
धरती की हरियाली
फूलोँ से सजती फुलवारी
ये निर्झर ये सागर
असंख्य इच्छाएँ
असीम प्रकाश
और तब मैँ धीरे धीरे
बंद कर लेती
अपनी मुट्ठी को
फिर मन ही मन
ख़ुश हो लेती
इस अनुभूति मेँ
तब जा कर
एहसास करा पाती
ख़ुद को
ख़ुद के होने का
और
तब ये वैशिष्टय
मेरी नहीँ
उस जहाँ की होती
जो मुझको
मेरे अस्तित्व से
मिलाने के लिए
धीरे से सिमट कर
मेरी हथेली मेँ आ जाता ।

¤¤¤¤¤निशा चौधरी ।

No comments:

Post a Comment