Sunday 15 December 2013

हे वर्षाजल ,
बूँद बूँद जब गिरती
नभ से
धराशायी होती ,तू धरा पे
संसृति सहज सजग अपनाता
तू अमृत जल , बरखा रानी
और उपाधि कितनी लेती
पर ये क्या तेरा विकराल रुप था

तोड़ दिया जीवन बाँधोँ को
मोड़ दिया जीवन लहरोँ को

हे वर्षाजल
माना नहीँ ये क्रिया तुम्हारी
ग़लती हम मानव की ही है
हमने तुझको नहीँ सहेजा
नहीँ संभाला
पर तू भी सोच

हे वर्षाजल
अन्याय नहीँ है , क्या ये
वो वर्ग जो भोगी
दुरुपयोग किया था , जिसने तेरा
सुख से है , अभी भी वो
भोग रहेँ हैँ , सुख को
और क़सूर नहीँ है
जिनका कोई
दुख़ से बोझ रहेँ हैँ ख़ुद को

तू शक्र से कहना
हान से कहना
योजना बनाए
बरसने की वहाँ
योजना बनती हर पल
मानव अस्तित्व छलने
की जहाँ

हे वर्षाजल ,संदेह नहीँ
कि संताप से बोझिल
वो वारिद दृग भी होँगे
पर अब जब भी तुम
वाष्प रुप मेँ
वापस पहुँचो अंबर मेँ
तब संदेश ये मेरा
दे देना उस स्रष्टा को
कि किसी और का किया
कोई और भरे
ये तैयार नहीँ
मैँ सहने को । ;-(

¤¤¤¤¤ निशा चौधरी _

No comments:

Post a Comment